मुसीबत ना बन जाए सुविधा

मुसीबत ना बन जाए सुविधा

 मोबाइल पर शिष्टाचार की बात करना ठीक ऐसा ही है जैसे किसी कॉलेज के छात्र को पांचवीं क्लास का कोर्स समझाया जा रहा हो। अधिकांश लोग इन सब बातों को जानते भी हैं, पर फिर भी जाने-अनजाने चूक हो ही जाती है। कल मेरे एक मित्र घर आए। मैं लैपटॉप पर कुछ काम कर रहा था। उनके आते ही मैंने उसे बंद कर उनका अभिवादन किया। अभी आधे मिनट की दुआ-सलाम भी ठीक तरह से नहीं हुई थी कि उनका फोन घनघना उठा और वे उस पर व्यस्त हो गए। बात खत्म होने के बाद भी वे उसमें निरपेक्ष भाव से अपना सिर झुकाए कुछ खोजने की मुद्रा बनाए रहे। इधर, मैं उनको ताकता बैठा था। बीच में एक बार मैंने एक मैग्जीन उठा उसके एक-दो पन्ने पलटे कि शायद भाई साहब को मेरी असहजता का कुछ अहसास हो। पर वे वैसे ही निर्विकार रूप से अपने प्रिय के साथ मौन भाव से गुफ्तगू में व्यस्त बने रहे। हारकर मैं भी अपने कंप्यूटर को दोबारा होश में ले आया। कुछ देर बाद वह बोले, अच्छा चला जाये और चल दिए। मोबाइल फोन, आज की दुनिया में यह भले ही एक वरदान है, लेकिन इसका अनुचित प्रयोग कभी-कभी दूसरों की परेशानी का सबब बन जाता है।
बात करें फोन शिष्टाचार की तो सबसे पहले तो फोन आने या करने पर अपना स्पष्ट परिचय दें। ‘पहचान कौन’ या ‘अच्छा! अब हम कौन हो गए’ जैसे वाक्यों से सामने वाले के धैर्य की परीक्षा न लें। हो सकता है कि आपने जिसे फोन किया हो उसके बजाय सामने कोई और हो, जो आपकी आवाज न पहचानता हो। या वह व्यस्त हो। स्पष्ट, संक्षिप्त और सामने वाले की व्यस्तता को देख बात करें। बात करते समय किसी का भी तेज बोलना या चिल्लाना अच्छा नहीं माना जाता।
ड्राइविंग के वक्त, खाने की टेबल पर, बिस्तर या टॉयलेट में तो खासतौर पर मोबाइल न ले जाएं। इसके अलावा अपने कार्यस्थल या किसी मीटिंग के दौरान फोन साइलेंट या वाइब्रेशन पर रखें और मैसेज भी न करें। धार्मिक स्थलों, बैठकों, अस्पतालों, सिनेमाघरों, पुस्तकालयों, अन्त्येष्टि इत्यादि पर बेहतर है कि फोन बंद ही रखा जाए। हमारा भी फर्ज बनता है कि हमारी सहूलियतें दूसरों की मुसीबत या असुविधा न बन जाएं।
साभार : कुछ अलग सा डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम

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